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मन ही मन मुस्कुरा रही है जाड़े की धूप/ विनय प्रजापति 'नज़र'

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लेखन वर्ष: २००३

मन ही मन मुस्कुरा रही है जाड़े की धूप
माज़ी के सफ़्हे गरमा रही है जाड़े की धूप

उड़ रही है नरमो-सख़्त पत्तों पर
सबके दिलों में गीत गा रही है जाड़े की धूप

गहरी नीली शाल में लिपटी देखा था चाँद को
तेरी यादों की धूप उड़ा रही है जाड़े की धूप

कब से मुब्तिला थी गुलाबी गुलों में ख़ुशबू
चप्पा-चप्पा महका रही है जाड़े की धूप

ज़िन्दगी वक़्त की धुँध में आगे दिखती नहीं
छीटें आँच की छिटका रही है जाड़े की धूप

उफ़क़ से शफ़क़ तक बह रही है रोशनी
सर्द रोशनी गुनगुना रही है जाड़े की धूप

इस सिम्त मैं हूँ उस सिम्त तन्हा तुम
दोनों को इक जा बुला रही है जाड़े की धूप

मैंने कभी कहा नहीं तुमने कभी सुना नहीं
मानी प्यार के समझा रही है जाड़े की धूप