भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत दिनों से / नवल शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:21, 2 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नवल शुक्ल |संग्रह=दसों दिशाओं में / नवल शुक्ल }} <P...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह बहुत दिनों से प्रेम नहीं कर पा रही थी
मैं बहुत दिनों से झगड़ नहीं पा रहा था
मै बहुत दिनों से प्रेम करना चाहता था
वह बहुत दिनों से झगड़ना चाहती थी

इन दिनों हमारे लिए सबकी कमी का
रोज़ ध्यान आता था
आकांक्षाएँ हमारे चाहने पर भी नहीं मिलती थीं।

हम इतने शिथिल और सुस्त थे कि
थामे हुए एक कमज़ोर धागे को, देखते
अपने-अपने सिर पर बचे, झूलते खड़े थे।

दिनों-दिन बड़े होते शहर
और छोटे होते घर में
न रोते, न हँसते
आँखें खोले
सुबह के स्वप्न की तरह थे दुनिया को देखते।