Last modified on 8 जनवरी 2009, at 00:57

इस महानगर में / मरीना स्विताएवा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:57, 8 जनवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रात छाई है मेरे इस विराट महानगर में,
और मैं... दूर जा रही हूँ सोए पड़े इस घर से।
लोग सोचते हैं... होगी कोई लड़की, कोई औरत,
पर यह मैं ही जानती हूँ
क्या हूँ मैं और क्या है यह रात।

मेरा रास्ता साफ़ कर रही है जुलाई की हवा
संगीत गूँज रहा है धीमा-सा एक खिड़की में।
आज रात सुबह तक बहते रहना है हवा को
एक छाती की पतली दीवारों से दूसरी छाती में।

खड़ा है काला चिनार
खिड़की में रोशनी
घंटाघर में घंटियों की आवाज़
हाथों में फूल।
किसी का पीछा न करता यह पाँव, यह छाया...
सब-कुछ है यहाँ
बस एक मैं नहीं।

रोशनियाँ जैसे सुनहरी मनकों के धागे,
मुँह में रात की पत्तियों का स्वाद।
मुझे मुक्त करो दिन के बंधनों से,
दोस्तो, विश्वास करो, मैं दिखती हूँ तुम्हें सिर्फ़ सपनों में।

रचनाकाल : 17 जुलाई 1916

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह