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काँच के परदे हैं / राजकुमार कुंभज
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काँच के परदे हैं
आवाज़ों का नाटक नहीं है
चम्पी करवा लो, मन बहल जाएगा
आजकल की दुनिया का यही नया विचार है
गुमाश्तों और कारिन्दों की एक बड़ी भीड़ है
जो यहाँ-वहाँ से ढूँढ़ रही है पत्थर
मगर वह एक पत्थर है कि मिलता नहीं
जो पहुँचे निशाने तक।