भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लगा मुझे / प्रेम साहिल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:08, 15 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेम साहिल |संग्रह= }} <Poem> काग़ज़ के कग़ार पे बैठ ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काग़ज़ के कग़ार पे बैठ गया
एक शब्द

देखते ही पहचान गया मैं
देखा था
मन की मुंडेर पे उतरते
उस शब्द को
अन्य शब्दों के साथ अनेक बार

लेकिन बैठने नहीं दिया उसे
कभी मैंने काग़ज़ पे

आज अचानक अकेला घबराया-सा
बैठ गया काग़ज़ के कगार पे

कैसे हो, उदास!
मैंने उसका नाम लिया पहली बार
बरसों बाद

धीरे से गर्दन उठाई, देखा
पकी उम्र के उस शब्द ने
यही मौक़ा है सेल्फ़पोट्रेट लिखने का
लगा मुझे।