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बूढ़ी सदी का दर्द / मोहन साहिल

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कस्बे के एक कमरे में
सुन रहा हूं मैं
दम तोड़ती बूढ़ी सर्दी की कराह
जबकि लोग बाहर
काली सड़कों पर गुजर रहे हैं
‘दिल तो पागल है’ गाते हुए
कैसे करूँ इस बुढ़ापे का वर्णन
याद करता हूँ
चारपाई पर लेटी माँ को
जिसने देखा मुझे बढ़ते हुए और
निरंतर बदलते हुए

उसे सुनाना है जीवन भर का दुख
अपनी औलाद को
वह देना चाहती है
नई सदी के लिए ज़रूरी अनुभव और संदेश
अपने सौ वर्ष का जीवनानुभव
कोई नहीं सुनता माँ की बात
सारा परिवार
टीवी पर देख रहा है
नई सदी का आगमन