भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौन आहों में बुझी तलवार / शमशेर बहादुर सिंह
Kavita Kosh से
Eklavya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:15, 23 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = शमशेर बहादुर सिंह }} <poem> ::1 मौन आहों में बुझी तलवा...)
1
मौन आहों में बुझी तलवार
तैरती है बादलों के पार।
चूमकर ऊषाभ आशा अधर
गले लगते हैं किसी के प्राण।
– गह न पाएगा तुम्हें मध्याह्न :
छोड़ दो न ज्योति का परिधान!
2
यह कसकता, यह उभरता द्वंद्व
तुम्हें पाने मधुरतम उर में,
तोड़ देने धैर्य-वलयित हृदय
उठा।
परम अंतर्मिलन के उपरांत
प्राप्त कर आनंद मन एकांत
खिला मृदु मधु शांत।
(1945)