भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नागों का डेरा / ओमप्रकाश सारस्वत
Kavita Kosh से
59.94.185.144 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 10:01, 23 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत |संग्रह=दिन गुलाब होने दो / ओमप...)
नावों पर
नागों का
डेरा है
बचकर चढ़ना
ध्रुव को
उल्काओं ने
घेरा है
बचकर बढ़ना
आरतियों के दीपक
धूमायित हैं
मनुहारों के सप्तक
शंकायित हैं
ओ गीतों के रसिया !
साथी ! श्रुतियों को बचकर गढ़ना
सागर से पूर्व
मरु ने सरस्वती लूटी
अपराधों के सम्मुख
साक्षी पड़ गई झूठी
इसीलिए तुम
शातिर के सिर दोष
बचकर मढ़ना
आस्थाओं के तल को
ही जब छल छेदेगा
तब विश्वासों के पुष्पक
भूमि सूंघेंगे ही
अतः सावधान !
तुम कारबाइड गैसों के रण में
बचकर लड़ना
सब बिकी हुई रौशनियां हैं
चौराहों पर
सब पिटी हुई चांदनियां हैं
दोराहों पर
सब चोर-अंधेरे पथ में
पाकेटमार
सरल तुम
बचकर अड़ना