भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दृगगोचर कब होंगे प्रियतम! अब अलस सिहरती काया है / प्रेम नारायण 'पंकिल'

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:30, 1 फ़रवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दृगगोचर कब होंगे प्रियतम! अब अलस सिहरती काया है।
आनन्दधाम से चिर सुन्दर! तव प्रणय-निमंत्रण आया है।
कोकिल बसंत की चिर सहचरि कहती प्राणेश-निमंत्रण है।
‘पी कहाँ’ पपीहा की वाणी सद्यः छू गयी विरह-व्रण है।
”आमंत्रण है” मुकुलित रसाल की कहती सुरभित छाया है।
कल-कल छल-छल सरि इंगित में प्रिय! तुमने मुझे बुलाया है।
फिर रही प्राण! बेसुध विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली॥86॥