द्वितीय प्रकरण / श्लोक 13-25 / मृदुल कीर्ति
मुझको नमन आश्चर्यमय ! मुझसा न कोई दक्ष है.
स्पर्श बिन ही देह धारूँ, जगत क्या समकक्ष है.------१३
मैं आत्मा आश्चर्य वत हूँ , स्वयं को ही नमन है,
या तो सब या कुछ नहीं, न वाणी है न वचन है.------१४
जहाँ ज्ञेय, ज्ञाता,ज्ञान तीनों वास्तविकता मैं नहीं,
अज्ञान- से भासित हैं केवल, आत्मा सत्यम मही.------१५
चैतन्य रस अद्वैत शुद्ध,में,आत्म तत्व महिम मही,
द्वैत दुःख का मूल, मिथ्या जगत, औषधि भी नहीं.-----१६
अज्ञान- से हूँ भिन्न कल्पित, अन्यथा मैं अभिन्न हूँ,
मैं निर्विकल्प हूँ, बोधरूप हूँ, आत्मा अविछिन्न हूँ.------१७
में बंध मोक्ष विहीन, वास्तव में जगत मुझमें नहीं,
हुई भ्रांति शांत विचार से, एकत्व ही परमं मही.-------१८
यह देह और सारा जगत, कुछ भी नहीं चैतन्य की,
एक मात्र सत्ता का पसारा, कल्पना क्या अन्य की -----१९
नरक, स्वर्ग, शरीर, बन्धन, मोक्ष भय हैं, कल्पना,
क्या प्रयोजन आत्मा का, चैतन्य का इनसे बना.----२०
हूँ तथापि जन समूहे, द्वैत भाव न चित अहो,
एकत्व और अरण्य वत, किसे दूसरा अपना कहो.----२१
न मैं देह न ही देह मेरी, जीव भी में हूँ नहीं,
मात्र हूँ चैतन्य, मेरी जिजीविषा बन्धन मही.-----२२
मैं महोदधि, चित्त रूपी पवन भी मुझमें अहे,
विविध जग रूपी तरंगें, भिन्न न मुझमें रहे .----२३
मैं महोदधि चित्त रूपी, पवन से मुझमें मही,
विविध जगरूपी तरंगें, भाव बन कर बह रहीं .----२४
मैं महोदधि, जीव रूपी, बहु तरंगित हो रहीं,
ज्ञान से मैं हूँ यथावत, न विसंगति हो रही.-----२५