अष्टावक्र उवाचः
कर्म कृत और अकृत दुःख - सुख, शांत कब किसके हुए
त्यक्त वृति, अव्रती चित्त, निरपेक्ष हैं जिनके हिये.-----१
उत्पत्ति और विनाश धर्मा तात ! विश्व नितांत है,
जगत के प्रति जिजीविषा, नहीं संत की भी शांत है.-----२
त्रैताप दूषित, हेय, निन्दित , जगत केवल भ्रान्ति है,
त्यक्त है, निःसार जग को, त्यागने में शान्ति है.-----३
वह अवस्था काल कौन सी, जब मनुज निर्द्वंद हो,
सुलभ से संतुष्ट, सिद्धि पथ चले , स्वच्छंद हो.------४
बहु मत मतान्तर योगियों की, मति भ्रमित करते यथा,
अध्यात्म और वैरागियों की, शान्ति भंग करें तथा.-----५
प्रारब्ध के अनुसार तेरी, देह गति व्यवहार है,
तू वासनाएं सकल तज दे, वासना संसार है.------६
जब इन्द्रियों ही इन्द्रियों में, देह वर्ते देह में,
तत्काल बंधन मुक्त प्राणी, आत्मा निज गह में.-----७
हेय तात ! तज दे वासनाएं, वासना संसार है,
कृत कर्म अब जो भी करे, प्रारब्ध का ही प्रकार है.-----८