अष्टादश प्रकरण / श्लोक 51-60 / मृदुल कीर्ति
अष्टावक्र उवाचः
जब अकर्तापन का अपनी, आत्मा का भास हो,
सकल उसकी चित्त वृतियों चपलतायें नाश हों -----५१
ज्ञानी की स्थिति उश्रुन्खल, हो तथापि शांत है.
वृत्ति स्पर्हामयी की, शान्ति भ्रम, उद्भ्रांत है.------५२
जिस धीर ज्ञानी के चित्त की, सब कल्पनाएँ शेष हों.
प्रारब्ध बस, भोग किंतु, चित शांत विशेष हो-----५३
तीर्थ, पंडित, देवता हो, नारी, नृप पुत्रादि हो,
देख कर भी शांत मन, उद्विग्न पर न कदापि हो.-----५४
किंकरों, नातियों, पुत्रों, बंधु बांधव आदि से
हो तिरस्कृत या हो पूजित, विलग दुःख सुख आदि से.----५५
लोक दृष्टि से जो सुख दुःख, उनसे ज्ञानी है परे.
आश्चर्यमय ऐसी दशा का ज्ञान, ज्ञानी ही करे.-------५६
चित्त ज्ञानी का निर्विकारी, शून्य न आकार है,
संकल्प हीन निरामया, कर्तव्यता संसार है.-----५७
मूढ़ जन कर्ता ही है, कर्म यद्यपि नही करें ,,
ज्ञानी अकर्ता ही रहे, कर्म यद्यपि बहु करें .-----५८
शयन भोजन और वचन में, ज्ञान ही आधार है,
आत्म सुखमय शांत सम्यक, ज्ञानी का व्यवहार है.५९
ज्ञानी का व्यवहार प्रेरित,आत्मज्ञान स्वभाव से,
क्लेश, क्षोभ विहीन, सागरवत, विरक्त प्रभाव से.----६०