भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घोंसला / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:35, 7 फ़रवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


वह रोज़ एक तिनका रखती है पेड़ पर

इस पेड़ में इस तरह एक घोंसले की शुरूआत होती है


जब मैं उठूंगा एक सुबह तो पाऊंगा कि समूचा पेड़

इस घोंसले के अन्दर आ गया है


यह आश्चर्य है विशाल घोंसले को देखकर कहेंगे लोग

नहीं यह घटनापूर्ण प्रारम्भ है पेड़ और चिड़िया के बीच

घोंसले में धूप की तरह चमकते हैं तिनके

हवा में पंख की तरह फड़फड़ाते हैं

अद्भुत्त लगता है तिनकों के साथ पेड़ का हिलना


पेड़ और घोंसले से बहुत दूर घर कितना मौन है

उससे ज़्यादा उत्साह मेरी इन अंगुलियों में है

जिससे छू जाते हैं तिनके

तिनके मेरी स्मृतियो में तरंगित होने लगते हैं


और जब मैं लिखता हूँ घोंसला

तो मुझे बार-बार छूटे हुए घर की याद आती है