ख़ुद कलेजा पकड़ने लगी बिजलियाँ / यश मालवीय
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
गीत जो अब तक नहीं गाया
हम उसे समझें सुनें आओ
हैं रिहर्सल में हमारी आत्माएँ
और मंचन की नहीं तारीख़ तय है
बोलने के नाम पर ज़्यादा कहें क्या
घुट रहे से शोर की ही चीख़ तय है,
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
उँगलियों पर ख़ून की बूँदें सजाएँ
फूल काँटों से चुनें आओ
नीच ट्रेजडी का कथानक भूल जाएँ
खुली खिड़की से निहारें आसमाँ
पाँव से ही ये ज़मी नत्थी रहे
और हम फिर-फिर पुकारें आसमाँ
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
आ रहे कल पर ज़रा सोचें-विचारें
सिर रुई जैसा धुनें आओ
कुछ नहीं 'रेडिकल' रहा तो क्या हुआ
बत्तखों जैसी सुबह अब भी सजे
रात में भी जाग उठती हैं उम्मीदें
दस बजे, ग्यारह बजे, बारह बजे
एक फ़ैण्टेसी बुनें आओ
है लबालब ताल आँखॊं का
गुनगुना पानी गुनें आओ