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हर जी का हयात है / मीर तक़ी 'मीर'
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हर जी हयात का, है सबब जो हयात का निकले है जी उसी के लिए, कायनात का
बिखरे है जुल्फ, उस रूख-ए-आलम फरोज पर वर्न:, बनाव होवे न दिन और रात का
उसके फरोग-ए-हुस्न से, झमके है सब में नूर शम्-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का
क्या मीर तुझ को नाम: सियाही की फिक्र है खत्म-ए-रूसुल सा शख्स है, जामिन नजात का