भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नींद-नींद में ही / केशव

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:09, 20 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=भविष्य के नाम पर / केशव }} <Poem> पहले पहर ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहले पहर सुला दिया
माँ ने
लोरियाँ गाकर
बिल्ली से डराकर
राम, गांधी के किस्से सुनाकर

दूसरे पहर सुला दिया
प्रेमिका ने
खिड़कियों, दरवाजों के पर्दे गिराकर
पीली पत्तियों-से होंठ छुआकर
फिल्मी डायलाग दोहराकर

तीसरे पहर सुला दिया
पत्नी ने
पहली तारीख को चेहरे की झुर्रियां छिपाकर
आपरेशन टेबल की तरह देह बिछाकर
गरीबी की सूली ढोने वाला मसीहा बनाकर

अंतिम पहर में
खुद को सुला दिया खुद ही
क्योंकि
धूप बदल चुकी थी
सूखे चमड़े में
जिजीविषा हो चुकी थी औंधा बर्तन
और कंधों पर आ बैठा था एक कौवा.