भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सफर / सौरभ
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:12, 28 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सौरभ |संग्रह=कभी तो खुलेगा / सौरभ }} <Poem> हे चान्द! त...)
हे चान्द!
तुम फिर निकल आए
अपने नए रूप में
हर रात भेष बदल
फिरते रहते हो तुम
किसी भटके राही की तरह
जो गोलधारा घूम
फिर वहीं पहुँच जाता है
इतना घूमकर
मैं खुद को वहीं खडा़ पाता हूँ
चान्द की तरह
अब मैं सोच रहा हूँ परेशान
मैं चला भी था कभी
या तय कर लिया अपना
रास्ता मैंने।