भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बूँद / सौरभ
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:44, 28 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सौरभ |संग्रह=कभी तो खुलेगा / सौरभ }} <Poem> एक ओस की बू...)
एक ओस की बूँद
थी बैठी फूल की पँखुड़ी पर
धुँध उसे उड़ा ले गई ऊँचे आसमान में
घाटियों के पार
फिर भी वह मस्त रही
अब मौसम ने उसे बर्फ बना छोड़ दिया
वह गिर रही है
या उड़ रही है
या उड़ रही है हवा के साथ
अपने असँख्य साथियों को लिए
अब वह बर्फ का फाहा
गिरा है मेरी हथेली पर
देखते-देखते वह फिर बूँद बनी
इठला रही है मेरी हथेली पर
और मैं, निर्विचार हो गया हूँ।