भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँखें जब ख़ामोशी गाने लगती हैं / गोविन्द गुलशन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:31, 27 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोविन्द गुलशन |संग्रह= }} <Poem> आँखें जब ख़ामोशी गा...)
आँखें जब ख़ामोशी गाने लगती हैं
दरपन से आवाज़ें आने लगती हैं
दिल में क़ैद तमन्नाओं को मत करना
दीवारों से सर टकराने लगती हैं
साहिल पर मिलता है सुकूँ दिल को लेकिन
लहरें हैं, एहसान जताने लगती हैं
मैंने ख़्वाबों की बस्ती को छोड़ दिया
आँखें ही तो हैं अलसाने लगती हैं
ऎसा ही होता है चाँदनी रातों में
यादें आकर दिल बहलाने लगती हैं
टूटे और पुराने घर में कौन रहे
खंडहर में रातें गहराने लगती हैं
कितना मुश्किल होता है राहें तकना
अर्ज़ ये है आँखें पथराने लगती हैं
आँखें भी पाग़ल हो जाती हैं शायद
कैसे-कैसे ख़्वाब सजाने लगती हैं