भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पानी का एक कारवाँ घर-घर में आ गया / गोविन्द गुलशन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:45, 27 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोविन्द गुलशन |संग्रह= }} <Poem> पानी का एक कारवाँ घर-...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पानी का एक कारवाँ घर-घर में आ गया
सैलाब जाने कैसा समन्दर में आ गया

इक दर्द की कराह से उबरे नहीं थे हम
इक और दर्द अपने मुक़द्दर में आ गया

शीशे को टूट जाना था टूटा नहीं मगर
इक और निशान आपके पत्थर में आ गया

हमराह होने वाला था जब मैं गुनाह के
किरदार मेरा बराबर में आ गया

ईजाद कर लिए कई सामान मौत के
इंसान किस अज़ाब के चक्कर में आ गया