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प्रेम का ही स्वर / आलोक श्रीवास्तव-२

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प्रेम अब शिराओं में बह रहा है
टपक रहा है आंखों से
तारे चले गये हैं दूर आकाश में
मौन है धरती
सिर्फ एक फूल खिला है सूने में
सिर्फ उसी का रंग
सिर्फ उसी की पंखुरी
दिशाओं पर दिपती है
काल, काल ही के जलागारों से
पुनर्जन्म ले रहा है
एक नया ही व्यक्ति
मैं अपने ही भीतर से उग रहा हूं
तुम्हारी हंसी मुझमें घुल रही है
तुम्हारे सौंदर्य से अभिभूत
विनत तुम्हारे आंतरिक संसार के आगे
मैं अलंकारों की भाषा भूल गया हूं
प्रेम का ही स्वर है
मेरे सारे वजूद पर छाया हुआ ।