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एक निर्जन नदी के किनारे / आलोक श्रीवास्तव-२
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मैं जानता हूँ
तुम कुछ नहीं सोचती मेरे बारे में
तुम्हारी एक अलग दुनिया है
जादुई रंगों और
करिश्माई बांसुरियों की
एक सुनसान द्वीप पर अकेले तुम
आवाज़ देती हो
जल-पक्षियों को
एक निर्जन नदी के किनारे मैं
कभी अंजलि भरता हूँ
बहते पानी से
कभी बालू पर लिखता हूं वे अक्षर
जिनसे तुम्हारा नाम बनता है
जमा होती गयीं हैं मुझमें
तुम्हारी कई कई आकृतियां
भंगिमायें चेहरे की
रोशनी से छलछलाती तुम्हारी आंखें
मैं जुटाता हूँ तुम्हारे लिये
रंगों और फूलों की उपमा
ढेर सारे सपनों के बीच निर्द्वंद
बेफ़िक्र खड़ीं तुम
हंसती हो सब कुछ पर ।