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जूते/ केदारनाथ सिंह

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सभा उठ गई

रह गए जूते

सूने हाल में दो चकित उदास

धूल भरे जूते

मुंह्बाये जूते जिनका वारिस

कोई नहीं था


चौकीदार आया

उसने देखा जूतों को

फिर वह देर तक खड़ा रहा

मुंहबाये जूतों के सामने

सोचता रहा--

कितना अजीब है

कि वक्ता चले गए

और सारी बहस के अंत में

रह गए जूते


उस सूने हाल में

जहां कहने को अब कुछ नहीं था

कितना कुछ कितना कुछ

कह गए जूते


( 'अकाल में सारस' नामक कविता-संग्रह से)