Last modified on 8 मई 2009, at 14:27

गुनगुन करने लगे हैं दिन / शांति सुमन

सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:27, 8 मई 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चिट्ठी की पांती से खुलने लगे हैं दिन,

सर्दियाँ होने लगी हैं और कुछ कमसिन ।


दोहे जैसी सुबहें

रुबाई लिखी दुपहरी,

हवा खिली टहनी-सी

खिड़की के कंधे ठहरी,


चमक पुतलियों में फिर भरने लगे हैं दिन,

नीले कुहासे टंके हुए आंचल पर पिन ।


कत्थई गेंदे की

खुशबू से भींगी रातें,

हल्का मादल जैसे

लगी सपन को पांखें,


ऋतु को फिर गुनगुने करने लगे हैं दिन,

उजाले छौने जैसे रखते पाँव गिन-गिन ।


सूत से लपेट धूप को

सहेजकर जेबों में,

मछली बिछिया बजती

पोखर के पाजेबों में,


हाथ में हल्दी-सगुन करने लगे हैं दिन,

सांझ जलती आरती-सी हुई तेरे बिन ।