भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना सुख, अपनी चुभन / कमलेश भट्ट 'कमल'

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:44, 10 मई 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपना सुख, अपनी चुभन कब तक चले

ख़ुद में ही रहना मगन कब तक चले।


जुल़्म पर हम चुप हैं, चुप हैं आप भी

देखना है ये चलन कब तक चले।


कोशिशें तो खत्म करने की हुईं

अब रही क़िस्मत वतन कब तक चले।


वो मरा था भूख से या रोग से

देखिए इस पर `सदन' कब तक चले।


जिस्म से चादर अगर छोटी है तो

जिस्म ढँकने का जतन कब तक चले।


जिनकी आँखों में बसी हों मंज़िलें

उनके पाँवों में थकन कब तक चले।