भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

औरत है एक कतरा / कमलेश भट्ट 'कमल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

औरत है एक कतरा, औरत ही खुद नदी है

देखो तो जिस्म, सोचो तो कायनात-सी है।


संगम दिखाई देता है उसमें गम़-खुशी का

आँखों में है समन्दर, होठों पे इक हँसी है।


ताकत वो बख्श़ती है ताकत को तोड़ सकती

सीता है इस ज़मीं की, जन्नत की उर्वशी है।


आदम की एक पीढ़ी फिर खाक हो गई है

दुनिया में जब भी कोई औरत कहीं जली है।


मर्दों के हाथ औरत बाजार हो रही है

औरत का गम नहीं ये मर्दों की त्रासदी है।