मैं अभी भी खड़ा हूँ / हिमांशु पाण्डेय
तुम्हें नहीं पता
कितनी देर से
तुम्हारी राह देख रहा हूँ ।
तुमने कहा था आने के लिए
अंतरतम में अनुरागी दीप जलाने के लिए
मुझे बहलाने के लिए और
प्रणय के शाश्वत गीत सुनाने के लिए
पर तुम नहीं आए.... ।
खड़े खड़े ही मैंने देखा
सूरज संध्या-सुन्दरी के अंचल में
जाने को पग बढ़ा रहा है,
दिन भर की थकान के बाद
पक्षी का एक जोड़ा बेतहाशा
अपने घर की ओर उड़ा जा रहा है,
पास के घरों से लौटे कामगारों का स्वर
सुनाई देने लगा है
और दिन ढले आयी शाम से डरा बच्चा भी
माँ की गोद में ले जुन्हाई, रोने लगा है।
पर मैं निर्विकार हूँ इन कार्य-व्यापारों से
और तुम्हारी राह देख रहा हूँ ।
रात भी बीत गयी
मैं तारे गिनता रह गया,
शायद तुम्ही हो यह सोच
हर खटके को ध्यान से सुनता रह गया,
पर तुम नहीं आए।
अब सुबह होने वाली है
क्या तुम आओगे ?
मेरे न रूठने पर भी
क्या मुझे मनाओगे?
"तुम इतने निष्ठुर नहीं जरूर आओगे !"
इसी विश्वास पर अड़ा हूँ,
मैं अभी भी खड़ा हूँ ।