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सर्वत्र तुम / हिमांशु पाण्डेय
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मैंने चंद्र को देखा
उसकी समस्त किरणों में
तुम ही दिखाई पड़े
मैंने नदी को देखा
उसकी धारा में तुम्हारी ही छवि
प्रवाहित हो रही थी
मैंने फूल देखा
फूल की हर पंखुड़ी पर
तुम्हारा ही चेहरा नजर आया
मैंने वृक्ष देखा
उसकी छाया में मुझे
तुम्हारी प्रेम-छाया दिखाई पड़ी
फ़िर मैं आकाश की ओर देखने लगा
उसके विस्तार ने खूब विस्तृत अर्थों वाली
तुम्हारी मुस्कान की याद दिला दी
और तब मैंने धरती को देखा
उसके प्रत्येक अवयव में तुम ही
अपनी सम्पूर्ण प्रज्ञा के साथ अवस्थित थे,
मैं सम्मोहित था
मैं स्वयं को देखा
मेरी बुद्धि, आत्मा, हृदय - सब कुछ
तुम्हारे ही प्रकाश से प्रकाशित था,
वस्तुतः वाह्य में भी तुम हो,
अन्तर में भी तुम -
सर्वत्र तुम ।