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समय के समर्थ अश्व / माखनलाल चतुर्वेदी

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समय के समर्थ अश्व मान लो

आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।

छोड़ दो पहाड़ियाँ, उजाड़ियाँ

तुम उठो कि गाँव-गाँव ही चलो।।


रूप फूल का कि रंग पत्र का

बढ़ चले कि धूप-छाँव ही चलो।।

समय के समर्थ उश्व मान लो

आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।।


वह खगोल के निराश स्वप्न-सा

तीर आज आर-पार हो गया

आँधियों भरे अ-नाथ बोल तो

आज प्यार! क्यों उदार हो गया?


इस मनुष्य का ज़रा मज़ा चखो

किन्तु यार एक दाँव ही चलो।।

समय के समर्थ अश्व मान लो

आज बन्धु ! चार पाँव ही चलो।।