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मैं विश्वास करना चाहता हूँ / रवीन्द्र दास

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मैं किसी पर, मसलन तुम पर, विश्वास करना चाहता हूँ अटूट जैसा जैसे कारीगर करता है अपनी हुनर पर और इसी ताकत से भिड़ा रहता है इकट्ठी हो गई छोटी बड़ी मुसीबतों से होता है नाकाम वह भी बहुत बार जारी रखता है कोशिश इसके बावजूद.

मै कुछ भेद बताना चाहता हूँ किसी को मसलन तुमको जैसे गुप्तरोग से पीड़ित व्यक्ति बताता है चिकित्सक को अपने कृत्यों की फेहरिस्त ताकि निकल पाए इस जुबानी इकरार से जीने का कोई रास्ता.

मैं कतई बुरा नहीं मानूँगा जब तुम कहोग मुझे बेवकूफ़ होने से बुरा, होकर सुनना नहीं है. मैं देखना चाहता हूँ अपनी शक्ल किसी की आँखों में उसी दैनिक विश्वास से, जैसे देखता हूँ आईना घर से निकलने से पहले एकबार जानता हूँ दुनिया बहुत बड़ी है मेरे घर में लेकिन जाना चाहता हूँ यहाँ से भी कहीं और .....!