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तुम्हें प्रेम करने की चाह / आलोक श्रीवास्तव-२

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मैं तुम्हें प्रेम करना चाहता था
जिस तरह से तुम्हें किसी ने नहीं चाहा
तुम्हारे भाई, पिता, मां और भी तुम्हारे चारों तरफ के वे तमाम लोग
जिस तरह से तुम्हें नहीं चाह सके
मैंने चाहा था तुम्हें उस तरह से चाहना
चांद सितारों की तिरछी पड़ती रोशनी में
दिप-दिप हुआ तुम्हारा चेहरा
बहुत करीब से देखना

तुम्हें छूने की इच्छा थी
तुम्हारे शरीर के हर हिस्से को
खुद में जज़्ब कर लेने की गहरी कामना भी
पर इन सब से ऊपर थी
तुम्हारे होठों की हंसी को
सदा फूलों में डूबा देखने की ख्वाहिश
सबसे परे था
बहे जा रहे समय के इस दरिया में
इत्तफाकन मिले तुम्हारे साथ को
बड़ी लौ से बचाये रखने का यत्न
देर तक तुम्हारे हांथों को
बहुत कोमलता से
अपने हांथों में सहेज रखने की भोली इच्छा

मैं चाहता था
तुम्हारा बचपन खुद जीना तुम्हारे साथ
तुम्हारे अतीत की गलियों, मोहल्लों, शहरों मे जाना
जिस नदी के जिस किनारे कभी तुम ठहरी हो कुछ पल को
अपनी हथेलियों में वहां उस नदी को उठा लेना
जो फूल तुम्हें सबसे प्रिय रहे कभी
उनकी एक-एक पंखुरी को हाथ में ले कर देर तक सहलाना
जो गीत कभी तुमने गाये थे
उनके सारे बोल
सदा को इस पृथ्वी पर गुंजा देना

बहुत भोली थीं मेरी इच्छायें
उन इच्छाओं में तुम सिर्फ नारी नहीं रहीं
न कोई सैर्फ बहुत प्रिय व्यक्ति
सिर्फ साथी नहीं
फिर भला सिफ प्रिया
सिर्फ कामिनी ही कैसे होतीं !

तुमको इस तरह धारण किया खुद में
जैसे दरख़्त शरद की हवाओं, वन के रहस्यों और
ऋतु के फूलों को करते हैं
तुम स्वप्न नहीं थीं मेरे लिये
न सुंदर वस्तुओं की उपमा
मैंने सोचा था कि
तुममें मेरे जीवन का कोई बहुत गहरा अर्थ है

पर तुम्हारा जीवन क्या था मुझमें ?

यहीं से वह प्रश्न शुरु हुआ
जिसके फंदों में हर शब्द उलझ गया है...

मेरी भोली इच्छाओं पर
तुम्हें चाहने
और खु़द को चाह पाने का योग्य बनाने की कोशिशों पर
दुख की तेज चोटें पड़ रही हैं ....

तुम कभी जानोगी क्या कि अपने दिल की आंच में
तुम्हारे लिये बहुत करीब से मैंने क्या महसूस किया था...?

तुम यक़ीन करोगी तुम्हारे लिये
कितनी अनमोल सौगातें थीं मेरे पास....
विंध्य के पर्वत थे
सतपुड़ा के जंगल
गंगा की वर्तुल लहरें
पलाश के इतने फूल जितनी पृथ्वी पर नदियां
तारों भरी विंध्य की रात, कास के फूल
कनेर की पत्तियां
पहाड़ी गांवों की शामें
और कुछ बहुत अकेले खंडहर
कुछ बहुत निर्जन पुल
सौंदर्य के कुछ ऐसे सघन बिंब
जिन तक काल की कोई पहुंच नहीं
और दिल के बहुत भीतर से उठी एक सच्ची तड़प...

सुनो, यह सब तुम्हारे लिये था
और यह सब आज बिलख उठा है
- ये जंगल, पर्वत, लहरें
ये फूल, नदी, शाम और खंडहर

तुम होतीं तो इन्हें एक अर्थ मिलता
इनका एकांत यों भी होता
जैसे आकाशगंगाओं में तारों की हंसी गूंजे
इन्हें सिर्फ प्यार नहीं एक संबंध चाहिये था
एक संबोधन चाहिये था ...
एक स्पर्श और एक हंसी चाहिये थी
अफसोस ! ऐसा कुछ न हुआ
और इन सब में गहरे उतर गये हैं
दुख के मौसम और उदासी के बोल ....

तुम्हारे इसी नगर में मैं
इस सब के साथ थके कदमों से गुजरता हूँ
कभी तुम्हारे घर के सामने से भी
कभी बहुत दूर उन रास्तों से
उन लोगों से, उन इमारतों और उन दरख़्तों से
जो तुमसे आश्ना थे
पर यह दर्द है कि बढ़ता ही जाता है
गो कि कभी कभी लगता है कोई रंजो-ग़म नहीं
फ़क़त उदासियां हैं शाम की ....