भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उखड़ी हुई नींद / गिरधर राठी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:05, 22 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= गिरधर राठी }} <poem> सच वह कम न था नींद उखड़ी जिससे न ...)
सच वह कम न था
नींद उखड़ी जिससे
न ही यह कम है -
उखड़ी हुई नींद
जो अब सपना नहीं बुन सकती
अंधेरे में
या रोशनी जलाकर
जो भी अहसास है
सच वह भी कम नहीं है
पर नींद वह क्या नींद
जो बुन न सके सपने !
कैसी वह भाषा
जो कह न सके -
देखो !