भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न फ़रमाओ, "नहीं है आदमी में ताबे-नज़्ज़ारा" / सीमाब अकबराबादी

Kavita Kosh से
चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:54, 1 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सीमाब अकबराबादी }} <poem> न फ़रमाओ, "नहीं है आदमी में ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



न फ़रमाओ, "नहीं है आदमी में ताबे-नज़्ज़ारा"।
सँभल जाओ अब उठती है निगाहे-नातवाँ मेरी॥

मेरी हौरत पै वो तनकी़द की तकलीफ़ करते हैं।
जिन्हें यह भी नहीं मालूम नज़रें हैं कहाँ मेरी॥