भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुनिया को अपनी बात सुनाने चले हैं हम

Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:29, 8 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=सौ गुलाब खिले / गुलाब खंड...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


दुनिया को अपनी बात सुनाने चले हैं हम
पत्थर के दिल में प्यास लगाने चले हैं हम

हमको पता है खूब, नहीं आँसुओं का मोल
पानी में फिर भी आग लगाने चले हैं हम

फिर याद आ रही है कोई चितवनों की छाँह
फिर दूध की लहर में नहाने चले हैं हम

मन के हैं द्वार-द्वार पे पहरे लगे हुए
उनको उन्हीं से छिपके चुराने चले हैं हम

यों तो कहाँ नसीब थे दर्शन भी आपके!
कहने को कुछ ग़ज़ल के बहाने चले हैं हम

कुछ और होंगी लाल पँखुरियाँ गुलाब की
काँटों से ज़िन्दगी को सजाने चले हैं हम