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रंग लगे अंग / जानकीवल्लभ शास्त्री
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रंग लाए अंग चम्पई
नई लता के
धड़कन बन तरु को
अपराधिन-सी ताके
फड़क रही थी कोंपल
आँखुओं से ढक के
गुच्छे थे सोए
टहनी से दब, थक के
औचक झकझोर गया
नया था झकोरा,
तन में भी दाग लगे
मन न रहा कोरा
अनचाहा संग शिविर का,
ठंडा पा के
वासन्ती उझक झुकी,
सिमटी सकुचा के