भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह दिन / सरोज परमार
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:46, 22 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह= घर सुख और आदमी / सरोज परमार }} [[C...)
अंगीठी में दहकते कोयलों को
देखने का अभिनय करती
बक्त को चबाने का अभिनय करती हूँ।
दर्द का मार्फिया सूँधे,
कब से
बेहोश पड़े हैं दिन
मर क्यों नहीं जाते यह दिन।
अब कुछ हो नहीं पाता मुझसे
कुछ करने के लिए
मौसम नहीं मन चाहिए ।
मन अब भुलाते भूल बैठा है ।
इन्द्रधनुश को देख ललचाता नहीं ।
जानता है
उधार लिए रंगों से सपने नहीं रंगे जाते ।
मेरा मन सब्ज़ों का खज़ाना था
जो पत्थर के भाव बिक गये
मेरे लिये
वोडका और पानी के गिलास
में कोई फर्क नहीं रह गया है।