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वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था / गुलज़ार
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रचनाकार: गुलज़ार
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वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था
रुख़ हवाओं का दिखा रहा था
कुछ और भी हो गया नुमायाँ
मैं अपना लिखा मिटा रहा था
उसी का इमान बदल गया है
कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था
वो एक दिन एक अजनबी को
मेरी कहानी सुना रहा था
वो उम्र कर रहा था मेरी
मैं साल अपने बढ़ा रहा था