भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी कभी / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:07, 15 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमानाथ अवस्थी }} <poem> कभी कभी जब मेरी तबियत यों ही घ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी कभी जब मेरी तबियत
यों ही घबराने लगती है
तभी ज़िन्दगी मुझे न जाने
क्या-क्या समझाने लगती है

रात, रात भर को ही मिलती
दिन भी मिलता दिन भर को
कोई पूरी तरह न मिलता
रामनाथ लौटो घर को

घर भी बिन दीवारों वाला
जिसकी कोई राह नहीं
पहुँच सका तो पहुँचूँगा मैं
वैसे कुछ परवाह नहीं

मंज़िल के दीवाने मन पर
जब दुविधा छाने लगती है
तभी ज़िन्दगी मुझे न जाने
क्या क्या समझाने लगती है

पूरी होने की उम्मीद में
रही सदा हर नींद अधूरी
तन चाहे जितना सुंदर हो
मरना तो उसकी मजबूरी

मजबूरी की मार सभी को
मजबूरन सहनी पड़ती है