भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आकाश की आत्मकथा / जयप्रकाश मानस

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:05, 16 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश मानस |संग्रह= }} <poem> नितांत एकाकी नदी हूँ ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नितांत एकाकी नदी हूँ
जब कोई न था, जब कुछ भी नहीं रहेगा
अंत के बाद भी बहता रहूँगा

वह उस दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम ही है
जिन्हें दीखता है मेरी गोद में सूर्य, चंद्र, सितारे नक्षत्र
उनसे भी अलग एकदम अकेला
अपने रचयिता का सुनसान के सिवाय
कुछ भी नहीं हूँ मैं

मैं नहीं कर सकता मनपसंद भोर की सैर
मनुष्य की तरह
मेरे लिए कहीं नहीं है गप्पें मारने की जगह
बस्स,
टकटकी लगाकर देखता रहता हूँ पृथ्वी की परिक्रमा को