भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मछलियाँ / वीरा

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:12, 19 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरा |संग्रह=उतना ही हरा भरा / वीरा }} <poem> तुम तो डर ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम तो
डर रहे हो
अपने पैरों की
ठिठुरन के लिए

मछिलयों के लिए सोचो
जिन्होंने बर्फ की
मुर्दा खामोशी के नीचे
बचा रखी है
अपनी लगातार लड़ाई से
पानी की तरलता

तालाब में कल ही रात
बर्फ जमी है
मछिलयों की दुनिया के खिलाफ
और तुम हो
कि अपनी चमड़ी तक को
बचाये रखना चाहते हो
बर्फ के चक्रव्यूह से