भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हर क्षण को गीत किया / श्रीकान्त जोशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:38, 22 सितम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर क्षण को गीत किया
सुनते हो मीत पिया!

यादें मुँहज़ोर सखी
बनकर जब छेड़े थीं
सूरज को रोक रहीं
बादल की मेड़ें थीं
अपने में बँध-बँध कर
अनमन ही सध-सध कर
मैंने सौ बार तुम्हें
हेरा और टेर लिया।

दिन बौराया मन
रातों ने सपनों की
जब-जब आ बात कही
पलकों ने अपनों की
नींदों से उकता कर
सरहाने कुछ गाकर
काजल के आँसू की
माला को बोर लिया।

हौले से रात गई
तेज़-तेज़ उमर नई
मुट्ठी में बालू-सी
कब थी, कब रीत गई
कैसी अनरीत हुई
वंशी में गीत नहीं
अब है जो बीत रहा
तब जो था बीत लिया।