भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आ गई मंज़िलें-मुराद, बांगेदरा को भूल जा / आरज़ू लखनवी

Kavita Kosh से
चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:58, 23 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आरज़ू लखनवी }} <poem> आ गई मंज़िले-मुराद, बाँगेदरा को ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ गई मंज़िले-मुराद, बाँगेदरा को भूल जा।
ज़ाते-खु़दा में यूँ हो महव, नामे-ख़ुदा को भूल जा॥

सबकी पस्न्द अलग-अलग, सबके जुदा-जुदा मज़ाक़।
जिसपै कि मर मिटा कोई, अब उस अदा को भूल जा॥