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ये कौल तेरा याद है साक़ी - ए - दौराँ / फ़िराक़ गोरखपुरी

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ये कौल तेरा याद है साक़ी-ए-दौराँ
अंगूर के इक बीच में सौ मयकदे पिनहाँ।

अँगड़ाइयाँ सुब्‍हों की सरे-आरिज़े-ताबाँ<ref>चमकते गालों पर</ref>।
वो करवटे शामों की, सरे-काकुले-पेचाँ।

सद-मेह्‌र दरख़्‍शिन्दा<ref>चमकते</ref>, चराग़े-तहे-दामाँ।
सरता-ब-क़दम तू शफ़क़िस्ताँ-शफ़क़िस्ताँ।

पैकर ये लहकता है कि गुलज़ारे-इरम है
हर अज़्व चहकता है कि है सौते-हज़ाराँ।

ज़ीरो-बमे-सीने<ref>सीना का उठना बैठना</ref> में वो मौसूक़ी-ए-बेसौत<ref>बिना आवाज़ का संगीत</ref>।
ये पंखड़ी होठों की है गुल्ज़ार बदामाँ।

ये मौजे - तबस्सुम हैं कि पिघले हुये कौंदे
शबनम-ज़दा ग़ुंचे’ लबे-लाली से पशेमाँ।

इन पुतलियों में जैसे हिरन मायले-रम हों
वहशत भरी आँखें हैं कि दश्ते-ग़िज़ालाँ।

हर अज़्वे-बदन जाम-बकफ़ है दमे-रफ़्तार
इक सर्वे चरागाँ नज़र आता है ख़रामाँ।

इक आलमे-शबताब है, बल खायी लटों में
रातों का कोई बन है कि है काकुले - पेचाँ।

तू साज़े-गुनह का है कोई परदा-ए-रंगीं
तू सोज़े-गुनह का है कोई, शोला-ए-रक़्साँ।

लहराई हुई ज़ुल्फ़, शिकन-ज़ेर-शिकन में
सौ पहलुओं से आलमें - जुल्मात में ग़लता।

अशआर मेरे तरसी हुई आँखों के कुछ खाब
हूँ सुब्‍हे - अज़ल से तेरे दीदार का ख़ाहाँ।

है दारो-मदार अह्‌ले-ज़माना का तुझी पर
तू क़त्बे-जहाँ, क़िबला-ए-दीं, काबा-ए-ईमाँ।




शब्दार्थ
<references/>