भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आते-आते रह जाते हो / माखनलाल चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:06, 7 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी |संग्रह=हिम तरंगिनी / माखनला...)
’आते-आते रह जाते हो,
जाते-जाते दीख रहे
आँखें लाल दिखाते जाते
चित्त लुभाते दीख रहे।
दीख रहे पावनतर बनने
की धुन के मतवाले-से
दीख रहे करुणा-मंदिर से
प्यारे देश निकाले-से।
दोषी हूँ, क्या जीने का
अधिकार नहीं दोगे मुझको?
होने को बलिहार, पदों का
प्यार नहीं दोगे मुझको?