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जिन्स-ए-गिराँ थी ख़ूबी-ए-क़िस्मत नहीं मिली / शाहिद माहुली
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जिन्स-ए-गिराँ थी ख़ूबी-ए-क़िस्मत नहीं मिली
बिकने को हम भी आये थे क़ीमत नहीं मिली
हंगाम-ए-रोज़ व शब के मशगिल थे और भी
कुछ कारोबार-ए-जीस्त से फुर्सत नहीं मिली
कुछ दूर हम भी साथ चले थे कि यूँ हुआ
कुछ मसअलों पे उनसे तबियत नहीं मिली
इक आंच थी जिससे सुलगता रहा वजूद
शोला सा जाग उट्ठे वो शिद्दत नहीं मिली
वो बेहिसी थी खुश्क हुआ सब्ज़ा ए उम्मीद
बरसे जो सुबह व शाम वो चाहत नहीं मिली
ख़्वाहिश थी जुस्तजू भी थी दीवानगी न थी
सहरानवर्द बनके भी वहशत नहीं मिली
वह रोशनी थी साए भी तहलील हो गए
आईनाघर में अपनी भी सूरत नहीं मिली