भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अध्याय ५ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:31, 17 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अथ पंचमो अध्याय
अर्जुन उवाच
तुम कृष्ण ! कबहूँ निष्काम योग,
और करमन कौ निष्काम कबहूँ .
अति श्रेय कहौ, दोउन मांहीं,
मन बुद्धि भ्रमित मोरी अबहूँ

सुन करमन कौ संन्यास,करम
निष्काम योग दोनहूँ मोसों.
अति श्रेय परम कल्याणक, पर
निष्काम सधै सहजहिं तोसों

जो राग न द्वेष न चाह करै ,
निर्द्वंद वही विचरे जग में.
जग बंध सों मुक्त भयो सोंई
निष्कामी के ब्रह्म रमे , रग में

निष्काम करम, संन्यास मांही ,
जिन भेद कियौ सोंई मूढ़ मना ,
तेहि ब्रह्म मिले बिनु संशय ही.
यदि एकहू साधत सिद्ध जना

पद ज्ञान कौ योगी पावत जो,
निष्काम करम कौ योगी वही,
फलरूप में जो सम देखि सके,
सत रूप यथारथ देखे वही

निष्काम करम बिनु हे अर्जुन!
कर्तापन भाव मिटे नाहीं.
निष्कामी जना, मन ब्रह्म बसें
तिन रहवत, ब्रह्म हिये मांहीं

जिन इन्द्रिन तन मन जीत लियौ,
अंतर्मन शुद्ध पुनीत कियौ .
प्रति प्रानीं माहीं ब्रह्म लख्यौ
तिन कर्म करयौ, नाहीं लिप्त भयौ

प्रश्वास -निःश्वासन त्याग गमन ,
उन्मेष निमेषन सोवन में.
तत्वज्ञ तौ ब्रह्म कौ अस जाने,
बस इन्द्रिय बरतत इन्द्रिन में

तत्वज्ञ सुनत, सोवत बोलत ,
खावत , जावत, अखियाँ मींचे,
सब कर्म करै पर नाहीं करै ,
अस भाव सों अंतस को सीचे

यदि मानुष करमन कौ सगरे
प्रभु अर्पित कर आसक्ति तजै ,
जल माहीं जलज के पातन सम
तिन, पाप विनास हो पुण्य सजे

मन इन्द्रिन, बुद्धि शरीरन सौं ,
निष्कामी जन आसक्ति तजै .
आतम शुद्धिंन हित कर्म करै ,
नाहीं भाव सकाम तनिक उपजे

निष्कामी जन फल करमन कौ,
अर्पित प्रभु कौ, सुख पावै महा,
फल सों आसक्त सकामी जना,
वश काम के तौ सुख पावै कहाँ?

नव द्वारन देह के रूप, कौ गेह,
में त्याग सबहिं, प्रभु शरणम् हैं.
करवावहिं ना ही कर्म करै,
जेहि जन के वश अंतर्मन है

प्रभु प्रानिन के कर्तापन कौ,
और ना ही रचे फल करमन कौ.
गुण माहीं तौ गुण बरतत है.,
प्रकृति प्रभु के संयोगन सों

न काहू के पाप न पुण्य करम,
कौ ब्रह्म कबहूँ अपनावत हैं.
यहि ज्ञान छिपो है माया सों,
सों जीव सकल भरमावत है