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अध्याय ११ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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गुरु द्रोन सकल योद्धान रथी,
सुत कौरव , कर्ण व् भीष्म बली,
सगरे तुझ माहीं समाय रहै,
केहि की महाकाल के आगे चली

विकराल विशाल जबाड़न में
बहु वेग सों मुखन समाय रहे.
कोऊ दांतन बीच लगौ दीखे,
कोऊ चूरन कोऊ चबाय रहे

जस वेगवती सगरी नदियाँ,
एक सागर मांहीं समावत हैं,
तस वीर जनान समूह सकल,
धधकत मुख माहीं धावत है

निज देह जलावत मोहित हो,
जस होत पतंगा अग्नि में,
तस जावत है मुख माहीं तोरे ,
अति वेग समावत हैं क्षण में

धधकात मुखन सों ग्रसि लोकन ,
सगरौ मुझ माहीं समाय रह्यो,
तोरे तप्त तेज सों तपित जगत
तोरे तेज सों तप्त तपाय रह्यो

बहु उग्र स्वरुप के देव महे ,
कौ आप हो ? आपकौ वंदन है,
अति आदि सरूप कौ जिज्ञासु ,
तोहे तत्त्व सों जानि सकौ मन है

श्री भगवानुवाच
विकराल हूँ काल विशाल महा
मैं लोक विनासत हूँ अबहीं
तू मारि ना मारि तबहूँ अर्जुन!
निश्चय मरिहैं कबहूँ सबहीं

अथ हे अर्जुन! तुम जुद्ध करौ,
रिपु जीत के वश धन राज करौ.
तू मात्र निमित्त मैं कर्ता हूँ,
उठ सव्यसाचिन रन काज करौ

अथ अर्जुन! द्रोण पितामह कौ,
जयद्रथ और कर्ण से योद्धन कौ,
तू मार अभय जय निश्चय है,
मत सोच हो तत्पर जुद्धन कौ

संजय उवाच
सुनि केशव के इन वचनन कौ,
कर जोड़ी के अर्जुन काँपत है.
भय भीत भयौ , पुनि हाथ जुड़े,
गद-गद मन कृष्ण सों वाँचत है

हृषिकेश तोरे संकीर्तन सों,
मन मुदित बहुत जग हरषित है,
भय भीत असुर चहुँ दिसि धावति
गण सिद्ध तोहे विनयावत है

सत और असत उन सों हूँ परे.,
आनंद घन आदि नियंता हो,
क्यों नाहीं नमन देवेश होय ,
ब्रह्मा केहूँ आदि अनंता हो

यम आदि सनातन देव पुरुष ,
आधार जगत सब जानत हौ
तुम जाननि जोग नियंता हो,
निज माहीं जगत समावत हो

हो आदि पितामह ब्रह्मा के,
यमराज वरुण शशि पावक हो.
पुनि होत नमन, पुनि होत नमन ,
तोहे कोटि नमन प्रतिपालक हो

समरथ तुझ माहीं अनंत महा,
व्यापक जग व्यापक तू ही तू.
तू सर्व रूप सर्वात्मन कौ.,
सर्वत्र नमन, सब तू ही तू

मम कृष्ण ! सखे हे ! यादव हे !
महिमा नाहीं तोरी जानति हूँ,
हठ, प्रेम, प्रमाद, ठिठोली में
जो तोसों कह्यो पछतावति हूँ

यदि बैठति, खावति, सोवति में,
एकांत सखाउन सम्मुख मैं,
अनजाने भयौ अपमान क्षमा
तौ अच्युत माँगति, उन्मुख मैं

गुरु और पिता तोसों बढ़ कर,
नाहीं लोक चराचर माहीं कोऊ
कोऊ दूसर तीनहूँ लोकन में
अस शक्ति पुंज नाहीं कोऊ

पितु पुत्र को जैसे सखा कौ सखा
अस कीजौ क्षमा मोरे अवगुण कौ.
अति पूजन जोग नमन पुनि-पुनि
सर्वस्य समर्पित चरणं कौ

नाहीं देख्यो गयौ कबहूँ पहिले,
यहि रूप ने हर्ष घनेरो करौ..,
मन मेरौ भयाकुल व्याकुल, सौं
देवेश चतुर्भुज रूप धरौ

कर चक्र व् शीश किरीट धरौ,
हे! बाहू सहस्त्र चतुर्भज हो,
तुम विश्व सरूप, सलोनों सों रूप,
में देखिबु चाहत तुम निज हो

हे पार्थ! तोहे मम आतम योग सों ,
रूप विराट दिखायो गयौ ,
यहि रूप सिवा तोरे दूसर सों
ना तो देख्यो गयौ ना दिखायो गयौ

ना तो वेदन यज्ञं अध्ययन सों,
ना दान तपों की क्रियानन सों.
नर रूप में रूप विराट लख्यो.
है शक्य , जो संभव अर्जुन सों

विकराल विशाल विराट सरूप,
सों, मूढ़ ना व्याकुल अर्जुन हो.
भय हीन प्रतीति सों प्रीतिमना,
लखि रूप चतुर्भुज, तुम निज हों

संजय उवाच
फिरि आपुनि रूप चतुर्भुज कौ,
वासुदेव दिखावत अर्जुन कौ,
पुनि कृष्ण ! दिखावत सौम्य विभा
दियो धीरज व्याकुल प्रानन कौ

अर्जुन उवाच
अति शांत मनुज यहि रूप तेरौ ,
चित शांत जनार्दन होत घनयो .
उद्विग्न भयातुर चित्त मेरौ,
अब शांत सुभाव में जात रमयो

श्री भगवानुवाच
अवलोकि लियौ अर्जुन तुमने,
तेहि रूप चतुर्भुज दुर्लभ है.
हिय माहीं घनेरी चाह तबहूँ
ना देवहूँ को अपि संभव है

तप, दान, ना यज्ञ ना वेदन सों,
मम रूप चतुर्भुज देखे कोऊ .
जेहि रूप को देवाहूँ तरसत है,
तेहि रूप कौ अर्जुन देखौ सोऊ

प्रिय मोरे परन्तप हे अर्जुन!
न भक्ति अनन्य ना तत्वन सों.
प्रत्यक्ष चतुर्भुज देखि सकै,
है शक्य कोऊ भी प्रानिन सों

आसक्ति ना बैर हो जाके हिया,
मोरे हित केवल कर्म करैं,
वे होत परायण लीन जना,
वे जानि के मोरो मर्म तरै