भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मद भरे ये नलिन / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:11, 25 नवम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लेखक: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*

मद - भरे ये नलिन - नयनमलीन हैं;
अल्प - जल में या विकल लघु मीन हैं?
या प्रतीक्षा में किसी की शर्वरी;
बीत जाने पर हुये ये दीन हई?

या पथिक से लोल - लोचन! कह रहे-
"हम तपस्वी हैं, सभी दुख सह रहे।
गिन रहे दिन ग्रीष्म - वर्षा - शीत के;
काल -ताल- तरंग में हम बह रहे।

मौन हैं, पर पतन में- उत्थान में ,
वेणु - वर - वादन -निरत - विभु गान में
है छिपा जो मर्म उसका, समझते;
किन्तु फिर भी हैं उसी के ध्यान में।

आह! कितने विकल-जन-मन मिल चुके;
हिल चुके, कितने हृदय हैं खिल चुके।
तप चुके वे प्रिय - व्यथा की आंच में;
दुःख उन अनुरागियों के झिल चुके।

क्यों हमारे ही लिये वे मौन हैं?
पथिक, वे कोमल कुसुम हैं-कौन हैं?"