भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चरवाहा भेड़ों को लेकर घर घर आया / बशीर बद्र
Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:41, 21 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर बद्र |संग्रह=उजाले अपनी यादों के / बशीर बद्…)
चरवाहा भेड़ों को लेकर घर घर आया रात हुई
तू पंछी दिल तेरा पिंजरा पिंजरे में जा रात हुई
कोई हमें हाथों को उठाकर बिस्तर में रख देता है
दुनिया वाले ये कहते हैं सूरज डूबा रात हुई
शहर मकान दुकानों वाले सब परदे किरणों ने लपेटे
ख़त्म हुआ सब खेल तमाश जा अब घर जा रात हुई
सुर्ख़ सुनहरा साफा बांधे शहज़ादा घोड़े से उतरा
काले गार से कम्बल ओड़े जोगी निकला रात हुई
किसकी ख़ातिर धूप के गजरे इन शाख़ों ने पहने थे
जंगल-जंगल रोये मीरा कोई न आया रात हुई