भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़म बढ़े आते हैं / सुदर्शन फ़ाकिर

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:53, 26 नवम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: सुदर्शन फ़ाकिर

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

ग़म बड़े आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह
तुम छिपा लो मुझे, ऐ दोस्त, गुनाहों की तरह

अपनी नज़रों में गुनाहगार न होते, क्यों कर
दिल ही दुश्मन हैं मुख़ालिफ़ के गवाहों की तरह

हर तरफ़ ज़ीस्त की राहों में कड़ी धूप है दोस्त
बस तेरी याद के साये हैं पनाहों की तरह

जिनके ख़ातिर कभी इल्ज़ाम उठाये, "फ़ाकिर"
वो भी पेश आये हैं इंसाफ़ के शाहों की तरह